- पीयूष द्विवेदी भारत
बस्तर पर अपनी
रचनाधर्मिता के लिए सुविख्यात लेखक राजीव
रंजन प्रसाद की नवीन पुस्तक
‘दंतक्षेत्र’ यूँ तो बस्तर के एक जिले दंतेवाड़ा पर केन्द्रित है, परन्तु इस एक
जिले के बहाने लेखक ने लगभग पूरे बस्तर के अतीत से लेकर वर्तमान तक की
परिस्थितियों और परिवर्तनों का वर्णन किया है। इस क्रम में लेखक ने परतंत्रता के
दौर से लेकर स्वतंत्रता के पश्चात् तक बस्तर के विकास से वंचित रहने के लिए
जिम्मेदार कारकों तथा अलग-अलग शोषकों द्वारा किए गए विनाश का तथ्यात्मक और प्रामाणिक
वर्णन करने का प्रयास किया है। बस्तर का आदिवासी, स्वतंत्रता से पूर्व ब्रिटिश
शासकों के शोषण का शिकार हुआ तो स्वराज्य प्राप्त होने के कुछ ही समय पश्चात् वहाँ
उगे नक्सलवाद के आतंक से ग्रस्त होकर रहना उसकी नियति बन गया। अतीत में कैसे
ब्रिटिश शासकों ने आदिवासियों का शोषण और उत्पीड़न किया और अब नक्सली भी कैसे
सशस्त्र आन्दोलन के नाम पर उसी कुकृत्य को अंजाम दे रहे हैं, इसपर यह पुस्तक बड़े
विस्तार और तथ्यपरक ढंग से बात करती है।
यह पुस्तक चार
भागों में विभक्त है। हरे कैनवास पर लाल रंग, अतीत के काले-सफ़ेद पन्ने, जीवन जो
बहती धारा है और नक्सल मुखौटा हटाकर जो देखा
– इन चार भागों में इस पुस्तक की सामग्री का विभाजन किया गया है। पहला भाग मुख्यतः
दंतेवाड़ा के सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक आदि विविध पक्षों पर बात
करता है। दंतेवाड़ा की प्राकृतिक संसाधनों
की समृद्धि को रेखांकित कर, उसके बावजूद वहाँ विकास की परियोजनाओं के आकार न ले
पाने पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया गया है कि स्वतंत्रता के पश्चात् सरकारी तौर
पर जब भी इस क्षेत्र को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कोई प्रयास हुआ, बस्तर
को विकास से वंचित रखने वाले कारकों ने बहुविध कैसे उसके मार्ग में अवरोध खड़े कर
दिए। इस सम्बन्ध में बस्तर की १९८१ में आरम्भ हुई बोधघाट परियोजना को पर्यावरण
आन्दोलनकारियों के दबाव में बीच में अस्वीकृत कर देने के सरकारी फैसले पर लेखक ने
प्रश्न उठाया है, “भारत की ऐसी कितनी परियोजनाएं हैं, जिनका निर्माण आधे-अधूरे रोक
दिया गया है ? क्या ऐसा बस्तर या ऐसी ही जगहों की नियति है, अन्यथा तो उत्तराखंड
में टिहरी जैसे बाँध भी सरकार ने आन्दोलनों की श्रृंखलाओं के बाद भी पूरे कर लिए
?” इस प्रकार के अनेक उदाहरणों और तथ्यों के माध्यम से लेखक द्वारा इस बात को
स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि प्राकृतिक समृद्धि के बावजूद यदि बस्तर
क्षेत्र विकास और आर्थिक समृद्धि से वंचित है, तो इसके लिए कुछ हद तक उस क्षेत्र
के प्रति सरकारों की उपेक्षात्मक दृष्टि जिम्मेदार है और काफी हद तक नक्सलियों के
भय व हर स्तर पर मौजूद उनके सहयोगियों का भी इसमें हाथ रहा है।
पुस्तक का दूसरा
भाग ‘अतीत के काले-सफ़ेद पन्ने’ प्राचीन बस्तर के इतिहास और ऐतिहासिक कलाकृतियों
आदि पर केन्द्रित है। इसमें प्राचीन कलाकृतियों को नुकसान पहुँचने को लेकर लेखक
द्वारा चिंता जताई गयी है। तीसरे भाग ‘जीवन जो बहती धारा है’ में राजीव ने मुख्यतः
बस्तर के लोकजीवन और उसके तत्वों पर चर्चा की है। इस क्रम में विभिन्न जनजातियों
की जीवन-शैली और संस्कृति पर प्रकाश डालने का कार्य हुआ है, जिसमें माड़िया,
मुरिया, हलबा, दोरला आदि जनजातियों के रहन-सहन, खान-पान पर बड़े ही रोचक ढंग से बात
की गयी है। इस सम्बन्ध में मुरिया जनजाति के वर्णन का यह अंश उल्लेखनीय होगा,
“मुरिया जनजाति हँसमुख, समाजपरक, सहकारिता और सहजीवन में विश्वास करने वाली होती
है। मुरिया समाज में विवाह की पहली शर्त होती है कि लड़का और लड़की एक गोत्र के न
हों, यहाँ तक कि गोत्र के बंधु गोत्र में भी विवाह नहीं किया जाता है...” इसी
प्रकार अन्य सभी जनजातियों और लोक-संस्कृति के विभिन्न तत्वों के विषय में वर्णन
किया गया है।
पुस्तक का आखिरी
भाग ‘नक्सल मुखौटा हटाकर जो देखा’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस भाग में हम बस्तर में
नक्सलवाद के उद्भव, विकास और वर्तमान स्थिति का क्रमिक व तथ्यात्मक वर्णन देखते
हैं। अन्य राज्यों का नक्सलवाद कैसे बस्तर के लिए नासूर बन गया, इस प्रश्न की भी
पड़ताल लेखक ने की है। पुस्तक के यह अंश देखें, “बस्तर में नक्सलवाद वस्तुतः
आंध्र-महाराष्ट्र-ओडिशा की समस्याओं को ढँकने का उपनिवेश है। ...बस्तर में
नक्सलवाद सामाजिक-आर्थिक समस्या नहीं है, बल्कि उसके कारण यहाँ का जनजातीय समाज जो
भुगत रहा है, वह उस श्रेणी में आता है।”
हालाँकि इस
पुस्तक में कुछ समस्याएँ भी हैं, जो कभी-कभी इसे अरुचिकर बना देती हैं। पहली चीज
कि इसमें तथ्यों और विश्लेषण की मात्रा में भारी असंतुलन है। तथ्यों की मात्रा,
विश्लेषण की अपेक्षा कहीं अधिक है। हर बात को तथ्यों के जरिये कहने की लेखक की
मंशा गलत नहीं है, परन्तु अगर तथ्य को विश्लेषण का समुचित संबल न मिले तो वो उबाऊ
और समझ से बाहर भी हो जाता है। बस्तर जैसे क्षेत्र, जिससे देश के लोग अधिक परिचित
नहीं हैं, के विषय में लिखते समय तो इस बात का ख़ास ख्याल रखा जाना चाहिए था। लेखक
यहाँ चूक कर गए हैं। दूसरी समस्या प्रस्तुति से जुड़ी है। लगभग साढ़े चार सौ पृष्ठों वाली इतनी वृहद्
पुस्तक का बड़े-बड़े चार भागों में विभाजन इसके पाठ को मुश्किल बनाता है। अच्छा रहता
कि इसे विषयवार अध्यायों में विभाजित करके लिखा गया होता, जो कि संभव भी है।
हालांकि इन सब चीजों के बावजूद कहना न होगा कि बस्तर, जिसको गैर-जमीनी विश्लेषणों
द्वारा देश भर में नक्सलवाद के लिए कुख्यात किया जा चुका है, के
सामाजिक-सांस्कृतिक, प्राकृतिक और ऐतिहासिक पक्षों को सामने लाने सहित वहाँ मौजूद
नक्सलवाद की समस्या के मूल कारणों की पड़ताल करने वाली यह पुस्तक न केवल बस्तर के
प्रति स्थापित नकारात्मक मिथकों को तोड़ती है, बल्कि उसे समझने की एक नयी दृष्टि भी
प्रदान करती है।
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