शनिवार, 17 मार्च 2018

राजनीतिक शुचिता का सवाल [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत
किसी भी लोकतान्त्रिक देश में शासन की सफलता इस बात में भी निहित होती है कि वहाँ की संसद में पहुँचने वाले जनप्रतिनिधि कितने स्वच्छ और बेदाग़ छवि के हैं। स्वच्छ छवि के जनप्रतिनिधि ही किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को उच्च नैतिक धरातल पर प्रतिष्ठित करते हैं। इस संदर्भ में अगर भारत की बात करें तो स्थिति ख़राब ही दिखती है। गौरतलब है कि गत दिनों भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार से दागी जनप्रतिनिधियों की सूची मांगी थी। सरकार द्वारा सौंपी गयी सूची के अनुसार देश के कुल ४८९६ सांसदों और विधायकों में से १७६५ जनप्रतिनिधियों पर कोई कोई मुकदमा चल रहा है। दागी जनप्रतिनिधियों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। उत्तर प्रदेश के २४८ जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जबकि दूसरे नंबर पर तमिलनाडु के १७८ सांसदों और विधायकों के खिलाफ मामले दर्ज हैं। इस मामले में बिहार तीसरे नंबर पर है। बिहार के १४४ सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले होने की बात सामने आई है। मणिपुर और मिजोरम मात्र ये दो ऐसे राज्य हैं, जहाँ किसी भी जनप्रतिनिधि पर कोई मुकदमा नहीं है। इसके अलावा शेष सभी राज्यों के जनप्रतिनिधि किसी किसी आरोप में लिप्त और मुकदमेबाजी का सामना कर रहे हैं। स्पष्ट है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दम भरने वाला भारत राजनीतिक शुचिता की इस कसौटी पर बुरी तरह से विफल नजर आता है।


शुचितारहित राजनीति की ये स्थिति जितनी चिंतित नहीं करती, उससे अधिक चिंता इसके प्रति देश की सरकारों की उदासीनता को देखकर होती है। भारतीय राजनीति को दागीमुक्त करने के लिए कोई ठोस पहल करने की इच्छाशक्ति किसी सरकार ने अबतक नहीं दिखाई है। वर्तमान सरकार की तरफ से भी इस सम्बन्ध में बातें तो कई की जाती रही हैं और खुद प्रधानमंत्री द्वारा भी अपराध मुक्त राजनीति की बात कई बार कही जा चुकी है, लेकिन इन बातों का व्यावहारिक स्तर पर कोई विशेष प्रभाव अबतक नहीं दिखाई दिया। वादा तो भाजपा ने गत लोकसभा चुनाव से पूर्व यह किया था कि सरकार बनी तो एक साल के अंदर ही राजनीति को अपराधमुक्त कर देंगे, लेकिन विडंबना देखिये कि उसी लोकसभा चुनाव में भाजपा सहित तमाम बड़े दलों की तरफ से बड़ी संख्या में दागी जनप्रतिनिधि संसद में पहुँचने में कामयाब रहे।

गौर करें तो राजनीति को दागियों से मुक्ति दिलाने की दिशा में इस सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम उठाया गया हो, ऐसा नहीं दिखता। वरन स्थिति तो ये है कि वर्ष २०१४ में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को यह निर्देश दिया था कि एक वर्ष के भीतर सभी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों का निपटारा कर दिया जाए। इसके लिए फ़ास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना की भी बात हुई थी। लेकिन, सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश के बाद अगले तीन वर्षों यानी २०१४ से २०१७ के बीच में सिर्फ ७६५ दागी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ ही सुनवाई पूरी हो सकी, जबकि तीन हजार से अधिक मामलों में अब भी सुनवाई जारी है। इस तथ्य के आलोक में दागीमुक्त राजनीति के प्रति सरकार की इच्छाशक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है।

खैर, गत वर्ष पुनः जब सर्वोच्च न्यायालय में यह मामला उठा तो सरकार के दिमाग में फ़ास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना की बात आई। खबर उठी कि सरकार दागी जनप्रतिनिधियों के मामलों की सुनवाई के लिए १२०० फ़ास्ट ट्रैक अदालतों का गठन करेगी। देखना होगा कि ये खबर, सिर्फ खबर ही साबित होती है या यथार्थ के धरातल पर इसका कोई क्रियान्वयन भी हो पाता है।

मौजूदा वक्त में दागी जनप्रतिनिधियों के दोषी सिद्ध होने पर सदस्यता जाने तथा अगले छः वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य सिद्ध होने का प्रावधान है। लालू यादव इस नियम के उदाहरण हैं। लेकिन, दागियों के सम्बन्ध में यह दंडात्मक व्यवस्था भी आसानी से लागू हो गयी हो, ऐसा नहीं है। वर्ष २०१३ में सर्वोच्च न्यायालय ने दागी सांसदों के दोषी सिद्ध होने पर सदस्यता खो देने की व्यवस्था का ऐलान किया था, जिसको पलटने के लिए तत्कालीन संप्रग सरकार अध्यादेश ले आई। मगर, तब के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस अध्यादेश को पुनर्विचार के लिए जब सरकार को वापस कर दिया तो संप्रग को अपनी भूल का एहसास हुआ। फिर राहुल गाँधी द्वारा सरेआम इस अध्यादेश को फाड़ने का नाटक हुआ और संप्रग ने अध्यादेश वापस ले लिया तथा सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय लागू हो गया। मगर, इस पूरे प्रकरण ने दागियों को लेकर तत्कालीन कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के लगाव को भी जगजाहिर कर दिया था।

दरअसल दागियों के प्रति देश की सरकारों का लगाव कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि लगभग सभी दलों में कमोबेश दागियों की भरमार है, ऐसे में वे दागी जनप्रतिनिधियों का विरोध कर भी कैसे सकते हैं। प्रायः आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं का अपने क्षेत्र में एक विशेष दबदबा रहता है और भय के कारण भी उनकी जीत लगभग सुनिश्चित रहती है, इस कारण हर दल ऐसे नेताओं पर दाँव खेलने में आगे रहता है। गत लोकसभा चुनाव में चुने गए सांसदों में से १६५ पर कोई कोई मुकदमा दर्ज है। सबसे ज्यादा सीटें भाजपा ने जीती है, तो स्वाभाविक रूप से उसके दागी सांसदों की संख्या भी सबसे अधिक है। १६५ दागी सांसदों में से ९८ भाजपा, १५ शिवसेना, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, टीडीपी, अन्नाद्रमुक, टीआरएस और बीजद के हैं। अब गत लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने कुल ४४ सीटें ही जीती थीं, जिनमें का दागी होना दिखाता है कि दागियों के मामले में औसत उसकी भी ख़राब नहीं है। खैर, दागी जनप्रतिनिधियों के सम्बन्ध में यही हाल विधानसभाओं का भी है। ये आंकड़े अपराध में डूबी भारतीय राजनीति की स्थिति स्पष्ट कर देते हैं और यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि आखिर हमारी सरकारें दागीमुक्त राजनीति की दिशा में कदम उठाने को लेकर मजबूत इच्छशक्ति का परिचय क्यों नहीं देतीं।

दागीमुक्त राजनीति के लिए जरूरी है कि बिना देरी किए फ़ास्ट ट्रैक अदालतों का गठन कर दागी नेताओं पर चल रहे मुकदमों का तुरंत निपटारा किया जाए। यह नियम तो ठीक है कि दोषी करार दिए जाने के बाद जनप्रतिनिधि अपनी सदस्यता खो देते हैं और चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो जाते हैं, लेकिन इसके साथ ही दोषी नेता को सजा पूरी होने तक राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने का नियम भी लागू कर दिया जाए तो बेहतर रहेगा। इससे संसद और विधानसभा के अलावा बाह्य राजनीतिक क्षेत्र भी अपराधियों के नियंत्रण और प्रभाव से मुक्त रहेगा। वैसे, दागियों से मुक्त राजनीति का स्वप्न सिर्फ सरकार के करने से साकार नहीं होगा, जनता की भी जिम्मेदारी है। जबतक अपना जनप्रतिनिधि चुनते समय लोग जाति-धर्म-क्षेत्र से ऊपर उठकर प्रत्याशी की छवि और प्रदर्शन को ध्यान में रखकर मतदान करना नहीं शुरू करेंगे, दागीमुक्त राजनीति संभव नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की गरिमा को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है।

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