- पीयूष द्विवेदी भारत
गीताश्री
के उपन्यास ‘हसीनाबाद’ की कहानी लोक और राजनीति, इन दो हिस्सों में बंटी हुई है। कहानी
का प्रथमार्द्ध पूर्णतः लोक पर केन्द्रित है, जबकि उत्तरार्द्ध से इसमें राजनीति
का भी प्रवेश हो जाता है। नृत्य के प्रति समर्पित एक ग्रामीण और पिछड़े वर्ग की
लड़की के अपनी नृत्य-कला के बलबूते इलाके में ख्याति अर्जित करने से लेकर राजनीति
के शिखर तक पहुँचने की कहानी इस उपन्यास में कही गयी है। ठाकुरों द्वारा अपनी
रखैलों के लिए बसाए गए शहर हसीनाबाद की पैदाइश गोलमी को उसकी माँ सुंदरी उस दलदल
से बचाने के लिए वहाँ से एक अपरिचित व्यक्ति सगुन महतो के संग भाग निकलती है। वो
गोलमी को एक शिक्षित और सम्मानित व्यक्तित्व के रूप में देखने की लालसा पालती है,
लेकिन गोलमी का रुझान तो बचपन से ही नृत्य की तरफ होता है। तमाम विरोधों के बावजूद
वो नृत्य के प्रति अपनी लगन और समर्पण को कम नहीं होने देती तथा इसीके दम पर समाज
में अपनी एक पहचान कायम कर राजनीति के शिखर तक पहुँचती है। मूलतः कथा का ये विषय कोई
बहुत नया नहीं है, मगर लोक-तत्वों की पृष्ठभूमि ने इसे ‘नयी बोतल में पुरानी शराब’
जैसा बना दिया है।
इस
कथानक की सबसे बड़ी विशेषता इसमें निहित लोक-तत्व ही हैं। ग्रामीण लोक का जो वर्णन
इस कहानी में यत्र-तत्र मिलता है, वो पाठक को प्रायः परिचित और अपना-सा लग सकता है।
पात्रों के नाम से लेकर घटनाएं और भाषा तक में लोक की उपस्थिति स्पष्ट रूप से
दृष्टिगत होती है। उदाहरण के तौर पर ‘चिड़िया और दाल के दाने’ की बहुप्रचलित लोक
कथा, अढ़ाई सौ नामक पात्र के नामकरण की बात, भोला भाई की ढेलामार प्रेम कहानी आदि
अनेक प्रसंग हैं, जो कथानक में लोक की उपस्थिति को जीवंत कर देते हैं। पात्रों की
बोलचाल में भी लोक मुखर होकर सामने आ जाता है। कभी लोकोक्तियों के रूप में तो कभी
लोकगीतों के टुकड़ों के माध्यम से हम जब-तब लोक की मुखरता को अनुभव करते जाते हैं। इस
लोक को रचने में लेखिका का प्रयास पूर्णतः सफल सिद्ध हुआ है।
कहानी
का पूर्वार्द्ध लोक की इसी उपस्थिति से ओत-प्रोत रहा है, परन्तु उत्तरार्द्ध में
जब कहानी राजनीति के मार्ग पर प्रवेश करती है, तो परिवेश सहित पात्रों के भीतर तक
से धीरे-धीरे लोक विस्मृत होता जाता है। यह ठीक है कि स्थानांतरण के कारण परिवेश
से ग्रामीण लोक का विस्मृत होना स्वाभाविक है, परन्तु पात्रों के भीतर मौजूद लोक
का भी अनायास ही अमुखर हो जाना स्वाभाविक नहीं लगता।
इस
कथानक का पूर्वार्द्ध जितना प्रभावित करता है, उत्तरार्द्ध उतना ध्यान नहीं खींचता।
कहानी के पूर्वार्द्ध में जो ठहराव, विस्तार और चिंतन दिखाई देता है, उत्तरार्द्ध
में उसका स्थान एक अनावश्यक जल्दबाजी और परिस्थितियों के कच्चे-पक्के विश्लेषण ने
ले लिया है। विशेष रूप से राजनीतिक परिस्थितियों, समीकरणों और दाँव-पेंचों का वर्णन-विश्लेषण
काफी साधारण बन पड़ा है। इसके अलावा कथा के पूर्वार्द्ध में कहानी के प्रति लेखिका
का जो यथार्थवादी दृष्टिकोण दिखाई देता है, उत्तरार्द्ध में उसका स्थान घोर
नाटकीयता ने ले लिया है। हालांकि किसी कहानी में नाटकीयता का होना अनुचित नहीं है,
मगर जब यथार्थवादी दृष्टिकोण से कोई कथानक
गढ़ा जा रहा हो, तो उसमें नाटकीय परिस्थितियों की अधिक उपस्थिति प्रायः कथानक के
प्रभाव को कम ही करती है।
परिस्थितियों
के अनुसार पात्रों के बदलते मनोभावों को समयानुकूल स्वर देने में भी यहाँ लेखिका
का प्रयास बहुत सफल नहीं दिखाई देता। उदाहरण के तौर पर खेंचरू नामक पात्र को देखें
तो गोलमी के प्रति उसके मनोभावों और उनमें होने वाले परिवर्तनों का चित्रण अनेक
स्थानों पर अंतर्विरोधों से भरा प्रतीत होता है। कभी लगता है कि वो गोलमी से प्रेम
करता है, तो कभी लगता है कि उसमें सिर्फ गोलमी के प्रति आकर्षण मौजूद है। ऐसे में
समझना कठिन हो जाता है कि खेंचरू के मन में गोलमी के प्रति कौन-सी भावना है। इसी
तरह गोलमी का चरित्र भी अबूझ ही रहा है। कभी ऐसा लगता है कि अपने मित्रों के प्रति
उसके मन में सच्ची मित्रता है, तो वहीं कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि वे उसके लिए
सिर्फ सफलता के साधन भर हैं। अपना अपमान करने वाले खेचरू को भी वो छोड़ने को तैयार
नहीं दिखती, क्योंकि वो उसके लिए जरूरी है। वहीं राजनीति में शिखर पर पहुचने के
पश्चात् वो अपने अढ़ाई सौ जैसे साथी की भी उपेक्षा कर रामबालक सिंह के प्रति आकर्षित
होने लगती है। फिर अढ़ाई सौ की याद उसे तब आती है, जब सब उसे छोड़ देते हैं। ये
घटनाएं अंततः गोलमी के चरित्र को एक स्वार्थी और अवसरवादी लड़की के रूप में ही
प्रस्तुत करती हैं। प्रारंभ में स्वाभिमानी, संघर्षशील और लक्ष्य-केन्द्रित रही
गोलमी के चरित्र में ये परिवर्तन स्वाभाविक नहीं लगते।
ये
सही है कि कथाओं में पात्रों के चरित्र में परिवर्तन होते हैं, मगर उन परिवर्तनों
से पूर्व परिस्थितियों द्वारा उनकी एक ठोस और तार्किक पृष्ठभूमि का निर्माण भी
जरूरी होता है, जिसका इन पात्रों के चरित्र-चित्रण में अभाव नजर आता है। हालांकि
रज्जो, अढ़ाई सौ, सगुन, सुंदरी जैसे पात्रों के चरित्र-चित्रण में लेखिका का प्रयास
ऐसे अंतर्विरोधों से मुक्त और लगभग सफल रहा है।
उपन्यास
का परिवेश किस दौर का है, इसका भी कई जगहों पर कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता, जिस
कारण यत्र-तत्र भ्रम की स्थिति बन जाती है। विशेष रूप से यह समस्या राजनीतिक
घटनाओं के वर्णन में दिखाई देती है। जेपी आन्दोलन की राजनीतिक पृष्ठभूमि से बात
शुरू करते हुए लेखिका गोलमी के लोकसभा चुनाव लड़कर मंत्री बनने तक आती हैं, मगर ये
किस दौर की घटना है, इसका कोई स्पष्ट संकेत नहीं देतीं। इस वर्णन में दो वर्ष की एक
गटबंधन सरकार का जिक्र होता है, जिसके बाद ‘मौन प्रधानमंत्री’ वाली एक गठबंधन
सरकार बनती है, जिसमें एक जगह आरटीआई का जिक्र आता है। यहाँ भ्रम की स्थिति उपजती
है, क्योंकि आरटीआई क़ानून सन २००५ में बना था, परन्तु इससे दो वर्ष पूर्व कोई भी दो साल की गठबंधन
सरकार नहीं चली थी। कथा में यदि किसी ऐसे वास्तविक तथ्य का वर्णन किया जाए, तो
उससे सम्बंधित समय-स्थान आदि बातें भी वास्तविक ही होनी चाहिए। कुल मिलाकर कुछ कल्पना और कुछ यथार्थ के मिश्रण का प्रायः
सफल फार्मूला यहाँ प्रस्तुति सम्बन्धी समस्याओं के कारण भ्रम अधिक पैदा किया है, प्रभावी
कम रहा है।
उपन्यास का विषय, भाषा, इसमें उपस्थित लोक-तत्व और
अंततः कथा का प्रतिपाद्य सब ठीक हैं, परन्तु समुचित प्रस्तुतिकरण के अभाव में
कथानक अपना पूरा प्रभाव छोड़ने में सफल सिद्ध नहीं हो पाता है। थोड़े शब्दों में
कहें तो ऐसा लगता है कि लेखिका ने पूर्वार्द्ध अपने मन से लिखा है, लेकिन
उत्तरार्द्ध लिखते समय किसी अज्ञात शक्ति से प्रेरित होकर वे अनावश्यक जल्दबाजी के
चक्कर में कथानक को संजोकर नहीं रख पाई हैं।
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