शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

हाशिये पर प्राथमिक शिक्षा [अमर उजाला कॉम्पैक्ट, राष्ट्रीय सहारा, दैनिक जागरण राष्ट्रीय, कल्पतरु एक्सप्रेस और नेशनल दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला 
किसी भी राष्ट्र का सतत प्रगतिशील रहना काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उस राष्ट्र के नागरिक कितने सुशिक्षित हैं । इसमे कोई दोराय नही कि जिस राष्ट्र के नागरिक अधिकाधिक संख्या में सुशिक्षित होंगे, वो राष्ट्र प्रगति के नित नए कीर्तिमान गढ़ेगा । सुशिक्षित नागरिक तैयार करने के लिए आवश्यक होता है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान दिया जाए । क्योंकि प्राथमिक शिक्षा ही समूची शिक्षा व्यवस्था की नीव होती है और अगर वो मजबूत होगी तभी आगे चलके उसपर ज्ञान की दमदार ईमारत खड़ी हो सकेगी । प्राथमिक शिक्षा की इस जरूरत को  अगर भारत के संदर्भ में देखें तो हम पाते हैं कि भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में अगर कुछ खूबियां हैं तो बहुत सारी खामियां भी हैं । इसमे कोई दोराय नही कि हमारी सरकार द्वारा बच्चों की बेहतर प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करने के लिए तमाम प्रयास किए जाते रहे हैं, पर ये भी एक कड़वा सच है कि उन तमाम प्रयासों के बावजूद आज देश के लगभग एक तिहाई बच्चे स्कूली अनुभवों से वंचित हैं । अब सवाल ये उठता है कि आखिर वो क्या कारण है कि सरकार द्वारा तमाम प्रयास किए जाने के बाद भी भारत की प्राथमिक शिक्षा की ये दुर्दशा हो रही है ? इस सवाल का जवाब सिर्फ यही है कि सरकार की अधिकाधिक योजनाओं की ही तरह शिक्षा संबंधी योजनाएं भी बस कागज़ तक सिमटकर रह गई हैं, यथार्थ के धरातल पर उनका कोई विशेष अस्तित्व नही है । क्योंकि, सरकार योजनाएं बनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है और उसे इससे कोई मतलब नही रह जाता कि उन योजनाओं का क्रियान्वयन कैसे हो रहा है ? इसलिए सरकार की बेहतरीन योजनाएं भी सम्बंधित अधिकारियों व मंत्रियों के बीच धन उगाही का एक माध्यम मात्र बनकर रह जाती हैं और जनता तक उनका लाभ नही पहुँच पाता । यहाँ भी यही स्थिति है ।
दैनिक जागरण 
नजीर के तौर पर देखें तो सरकार द्वारा अधिकाधिक बच्चों को स्कूलों से जोड़ने के लिए सन २००९ में ‘शिक्षा का अधिकार’ नामक क़ानून लागू किया गया, जिसके तहत ६ से १४ साल तक के प्रत्येक बच्चे के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है । साथ ही, निजी स्कूलों को भी अपने यहाँ ६ से १४ साल तक के कमजोर और गरीब तबकों के २५ प्रतिशत बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया । पर आज इस क़ानून के लागू होने के लगभग ५ साल बाद अगर हम इसके क्रियान्वयन पर एक नजर डाले तो देखते हैं हैं कि इसके नियमों का कोई समुचित क्रियान्वयन अब तक  कहीं नही हुआ है । अभी हाल ही में इस क़ानून के उचित क्रियान्वयन न होने के संबंध में एक संगठन द्वारा दायर याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र व सभी राज्य सरकारों को नोटिस भेजकर जवाब माँगा है । दायर याचिका में कहा गया था  कि देश भर में तकरीबन साढ़े तीन लाख विद्यालयों और १२ लाख शिक्षकों की कमी है जिस कारण ‘शिक्षा के अधिकार’ क़ानून का समुचित क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है । साफ़ है कि ये क़ानून भी जहाँ यथार्थ के धरातल से दूर सिर्फ कागजों तक सिमटकर रह गया है, वहीं सरकार इस तरफ से आँख-कान बंद किए इसको अपनी उपलब्धियों की फेहरिस्त में शामिल किए गद्गद है । उसे कहाँ परवाह कि राष्ट्र के सुखद और मजबूत भविष्य की द्योतक हमारी प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था गर्त में जा रही है ।
कल्पतरु एक्सप्रेस 
नेशनल दुनिया 
राष्ट्रीय सहारा 
  उपर्युक्त बाते तो सरकार की प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं और उनके क्रियान्वयन आदि की थी । अब अगर एक नज़र प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर डालें तो हम देखते हैं कि यहाँ भी सबकुछ सही नही है । इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश की कक्षा पाँच के आधे से अधिक बच्चे कक्षा दो की किताब ठीक से पढ़ने में असमर्थ हैं । ये रिपोर्ट हमारी प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के सरकारी दावों के खोखलेपन को सामने लाने के लिए पर्याप्त  है । विचार करें तो प्राथमिक या उच्च किसी भी शिक्षा में गुणवत्ता के लिए मुख्य रूप से दो बातें सर्वाधिक आवश्यक होती हैं – श्रेष्ठ व पर्याप्त शिक्षक और उत्तम पाठ्यक्रम । अब शिक्षकों की कमी की बात तो हम ऊपर देख ही चुके हैं और रही बात उत्तम पाठ्यक्रम की तो इस मामले में भी काफी समस्याएं दिखती हैं । हालत ये है कि एक एलकेजी कक्षा का बच्चा जब स्कूल निकलता है तो पीठ पर लदे बस्ते के बोझ के मारे उससे चला नही जाता । कहने का मतलब ये है कि आज बच्चों पर उनकी शारीरिक और मानसिक क्षमता से कहीं अधिक का शैक्षिक बोझ डाला जा रहा है । ये समस्या अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चो के साथ कुछ ज्यादा ही है । अंग्रेजी माध्यम से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर रहे बच्चों के लिए जो पाठ्यक्रम दिखता  है, उसे किसी लिहाज से उन बच्चों की बौद्धिक क्षमता के योग्य नही कहा जा सकता । कारण कि उसमे केजी कक्षा के बच्चों के लिए तैयार पाठ्यक्रम दूसरी-तीसरी कक्षा के बच्चों के पाठ्यक्रम जैसा है । उदाहरण के तौर पर देखें तो जिन बच्चों  की बौद्धिक अवस्था ‘दिस’, ‘दैट’ आदि शब्दों को याद करने और अर्थ समझने की है, उनके लिए ‘दिस’, ‘दैट’ का प्रयोग सिखाने वाला पाठ्यक्रम तैयार किया गया है । कहना गलत नही होगा कि ये पाठ्यक्रम भारत की प्राथमिक शिक्षा के लिए नुकसानदेह होने के साथ-साथ बच्चों के कोमल मस्तिष्क और मन के लिए घातक भी है । ऐसे पाठ्यक्रम से ये उम्मीद बेमानी है कि बच्चे कुछ नया जानेंगे, बल्कि सही मायने में तो ऐसे पाठ्यक्रम के बोझ तले दबकर बच्चे पढ़ी चीजें भी भूल जाएंगे । जाहिर है कि ऐसा पाठ्यक्रम बच्चों की बौद्धिक क्षमता के अनुसार किसी लिहाज से उपयुक्त नही है ! पर बावजूद इसके अगर इस तरह का पाठ्यक्रम स्कूलों द्वारा स्वीकृत है तो इसका सिर्फ एक ही कारण दिखता है - मोटा मुनाफा कमाना । चूंकि, बच्चों के इस भारी-भरकम पाठ्यक्रम की ढेर सारी  किताबें अभिभावकों को स्कूल से ही लेनी होती हैं, अतः इस संभावना से इंकार नही किया जा सकता कि इसके पीछे स्कूलों और प्रकाशकों आदि के मेलजोल से शिक्षा के नाम पर मुनाफाखोरी का बड़ा गोरखधंधा चल रहा होगा । उचित होता कि केन्द्र व राज्य सरकारें  इस संबंध में गंभीर होतीं तथा इस तरह के पाठ्यक्रमों को निरस्त करते हुए सम्बंधित लोगों पर उचित कार्रवाई करती ।  साथ ही, बच्चों के लिए ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाता जो उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुरूप होने के साथ-साथ मानसिक विकास के लिए उपयुक्त भी होता ।

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