गुरुवार, 15 जनवरी 2015

अबतक क्यों टला चुनाव [कल्पतरु एक्सप्रेस, प्रजातंत्र लाइव और डीएनए में प्रकाशित]



  • पीयूष द्विवेदी भारत
कल्पतरु एक्सप्रेस

लगभग साल भर की लम्बी जद्दोजहद के बाद आख़िरकार दिल्ली चुनाव की तारीखों का ऐलान हो ही गया। चुनाव आयोग ने आगामी ७ फ़रवरी को मतदान और १० फरवरी को मतगणना की घोषणा की है। अभी बीते साल दिसंबर में जब सभी दलों ने उपराज्यपाल महोदय के समक्ष सरकार बनाने में अपनी असमर्थता जताई थी जिसके बाद दिल्ली विधानसभा को भंग किया गया, तभी यह स्पष्ट हो गया था कि जल्दी ही दिल्ली में चुनाव की तारीखों का ऐलान हो जाएगा। इसीलिए दिल्ली की राजनीति के राजनीतिक दल दिल्ली की बिसात पर अपनी चुनावी चालें चलने लगे थे। फिर चाहें वो दिल्ली के पूर्व सीएम व आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविन्द केजरीवाल का रामलीला मैदान में दिल्ली की जनता से डायलाग करना हो या फिर अभी हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी का अपनी पार्टी भाजपा के लिए दिल्ली में रैली करना हो अथवा भाजपा सरकार का दिल्ली की ८९५ कॉलोनियों को नियमित करने का फैसला हो, ये सारी चीजें इस संभावित दिल्ली चुनाव को नज़र में रखकर ही की जा रही थीं। अभी हाल ही में संपन्न दिल्ली के केंट बोर्ड चुनावों में तो दिल्ली के मतदाताओं ने आप को केवल एक सीट दी, बाकी सीटें भाजपा की झोली में गईं। इससे कुछ-कुछ संकेत तो मिलता है कि विधानसभा में भी भाजपा को दिल्ली की जनता का साथ मिल जाय. लेकिन, इसमें सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि दिल्ली में भाजपा के पास कोई मजबूत  चेहरा नहीं है, जिसके दम पर वो दिल्ली की जनता से वोट मांग सके, अतः यहाँ उसको जो भी समर्थन मिलेगा, वो सिर्फ मोदी के चेहरे पर ही मिलेगा।    
प्रजातंत्र लाइव 
 अब दिल्ली का ताज किसके सिर सजता है, ये तो १० फ़रवरी को पता चलेगा। लेकिन इस बीच एक बड़ा सवाल दिल्ली चुनाव में हुई देरी के सम्बन्ध में  उठता है कि ये तो ‘आप’ सरकार के इस्तीफे के बाद ही स्पष्ट हो गया था कि संवैधानिक तरीके से कोई भी दल दिल्ली में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में इतने लम्बे समय तक चुनाव का रास्ता बाधित कर दिल्ली की जनता को उसके पसंद की एक निर्वाचित सरकार के लोकतांत्रिक अधिकार से क्यों वंचित रखा गया ? चुनाव का रास्ता साफ़ होने में हुए इस विलम्ब  के लिए हमारे सियासी दलों द्वारा उपराज्यपाल को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। वे कह सकते हैं कि ये विलम्ब इसलिए हुआ कि उपराज्यपाल सरकार की संभावनाएं तलाश रहे थे। लेकिन इतना कहने से इस सम्बन्ध में हमारे हुक्मरानों की जवाबदारी कत्तई ख़त्म नहीं हो जाती। दिल्ली को बे-सरकार रखने के लिए जितना उपराज्यपाल जिम्मेदार हैं, उतना ही दिल्ली की सियासत के सभी प्रमुख राजनीतिक दल भी हैं। फिर चाहें वो कांग्रेस हो या भाजपा अथवा आप। और ये दल इस जिम्मेदारी को लेने से कत्तई भाग नहीं सकते।
डीएनए 
  विचार करें तो राज्यपाल का सैद्धांतिक रूप व कार्य कुछ भी हो, पर व्यावहारिक तौर पर वो राज्यों में केंद्र का एक प्रतिनिधि ही होता है जो कि अधिकाधिक कार्य केंद्र के निर्देश पर करता है। उसपर भी दिल्ली तो एक अपूर्ण राज्य है, अतः इसके उपराज्यपाल महोदय केंद्र सरकार के इशारों पर नहीं चले होंगे, ऐसा मानना कठिन है। अतः समझना बेहद आसान है कि सरकार बनने का कोई समीकरण न होते हुए भी अगर उपराज्यपाल महोदय दिल्ली में सरकार बनवाने की कवायदों में लगे थे तो इसके पीछे कहीं न कहीं केंद्र में मौजूद सरकारों के निर्देश ही थे। थोड़ा और गहराई से विचार करें तो दिल्ली जब सरकार विहीन हुई तब केंद्र में कांग्रेसनीत संप्रग-२ सरकार थी। अब तब हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को दिल्ली की जनता ने पूरी तरह से नकार दिया था और वो महज ८ सीटें ही पा सकी थी। ऐसी दुर्दशा होने के बाद कांग्रेस तत्काल दुबारा दिल्ली चुनाव में उतरने का जोखिम नहीं ले सकती थी। क्योंकि, पूरी संभावना थी कि दुबारा चुनाव होने पर कुछ उसकी तो कुछ आप की सीटें कम कर के भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ जाती। अतः संदेह नहीं कि दिल्ली में चुनाव टालने के उद्देश्य से कांग्रेस द्वारा दिल्ली के उपराज्यपाल महोदय को मौजूदा विधानसभा में ही सरकार की संभावनाएं तलाशने व इसी बहाने समय बीताने का निर्देश दिया गया होगा। और इसीके मद्देनज़र उपराज्यपाल तब भी जिस-तिस राजनीतिक दल के साथ निरर्थक बैठकें करते रहे। खैर! लोकसभा चुनाव बीते और केंद्र से कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हुआ तथा भाजपा केंद्र की सत्ता में आई। लगा कि अब दिल्ली में चुनाव होंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और दिल्ली की हालत जस की तस बनी रही। दरअसल, लोकसभा चुनाव के बाद खाली हुई कुछ राज्यों की विधानसभा सीटों आदि पर उपचुनाव हुए, जिनमे कुछ स्थानीय कारणों से परिणाम भाजपा के लिए अपेक्षानुरूप अच्छे नहीं रहे। संभवतः इन नकारात्मक परिणामों से ही  भयभीत होकर भाजपा ने भी हरियाणा व महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों तक दिल्ली चुनाव को टालने व केंद्र में बैठकर राष्ट्रपति शासन के जरिये दिल्ली पर राज करने का मन बना लिया। इसीलिए इन विधानसभा चुनावों से पहले उसने कभी भी खुलकर यह स्पष्ट नहीं किया कि वो दिल्ली में सरकार बनाएगी या नहीं, हमेशा संशयपूर्ण बातें करती रही। और जब हरियाणा व महाराष्ट्र में चुनाव हो गए तथा इन राज्यों में भाजपा विजयी भी हो गई तो उसने दिल्ली में भी चुनाव का रास्ता खोल दिया यानी कि सरकार बनाने में अपनी असमर्थता जता दी। कांग्रेस और भाजपा के बाद अगर एक नज़र आम आदमी पार्टी पर डालें तो दिल्ली में सरकार न बनने में उसका भी कुछ कम योगदान नहीं है। पहली बात तो ये कि आप के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद से बेहद गलत मुद्दे पर बेवजह का इस्तीफा दिया, जिसके बाद से ही उपर्युक्त समस्त क्रियाकलाप हुए। अगर वे इस्तीफा नहीं दिए होते तो इतना कुछ होता ही नहीं, इसलिए दोषी तो वे और उनकी पार्टी भी है। साथ ही, दिल्ली में चुनाव को लेकर ‘आप’ के सुर भी कभी स्थायी नहीं रहे। भाजपा की ही तरह वह भी कभी चुनाव तो कभी सरकार बनाने की बात करती रही। हाँ, अंतिम कुछ दिनों से उसने चुनाव कराने की मांग जरूर उठाई हुई थी। कहने का अर्थ ये है कि केंद्र में कांग्रेस रही या भाजपा दोनों ने ही अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण चुनाव का रास्ता बाधित कर दिल्ली को एक निर्वाचित सरकार से विहीन रखा, तो दूसरी तरफ आप ने भी इस मसले को उलझाने का ही काम किया। कुल मिलाकर स्पष्ट है कि दिल्ली का आम मतदाता सत्ता व विपक्ष दोनों तरफ बैठे लोगों के हाथों नौ महीने तक केवल छला गया है। संदेह नहीं कि वो इस क्षल का हिसाब इन हुक्मरानों से दिल्ली के चुनाव में जरूर लेगा।

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