मंगलवार, 6 जनवरी 2015

भू-अधिग्रहण में परिवर्तन का मतलब[अमर उजाला कॉम्पैक्ट और दैनिक दबंग दुनिया में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत 

अमर उजाला 
अभी सन २०१३ में ही कांग्रेस-नीत संप्रग-२  सरकार कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की मंशा पर पुराने भू-अधिग्रहण क़ानून को समाप्त कर उसकी जगह २००७ से लंबित नया भू-अधिग्रहण क़ानून लाई थी। इससे पहले देश में ब्रिटिश शासन के समय सन १८९४ में बना भू-अधिग्रहण क़ानून था। अब चूंकि, १८९४ में अंग्रेजों ने जब यह क़ानून बनाया था, तो इसके पीछे उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ शोषण का था न कि न्यायपूर्वक भूमि-अधिग्रहित करने का। इसलिए इसके प्रावधान बेहद अन्यायपूर्ण व भू-स्वामियों के हितों का दमन करने वाले रखे गए थे। मोटे तौर पर कहें तो  अंग्रेजी ज़माने के क़ानून के तहत सरकार जब, जिसकी भूमि को चाहे बिना किसी पूर्व सूचना के अधिग्रहित कर सकती थी। लेकिन दुर्भाग्य कि आजादी के लम्बे अन्तराल के बाद भी अंग्रेजी जमाने का भू-अधिग्रहण क़ानून ही थोड़े-बहुत संशोधनों के साथ चलता रहा। लेकिन सन २०१३ में कांग्रेस उपाध्यक्ष  राहुल गांधी की मांग पर तत्कालीन संप्रग सरकार द्वारा अंग्रेजी ज़माने के इस क़ानून को हटाकर नया भू-अधिग्रहण क़ानून लाया गया, जिसके तहत भू-स्वामियों के हितों को सबसे ऊपर रखा गया। अब चूंकि, इस क़ानून के द्वारा भू-अधिग्रहण को बेहद कठिन बना दिया गया था, लिहाजा इसक़ा भारतीय उद्योग जगत की तरफ से ख़ासा विरोध हुआ। लेकिन संप्रग सरकार इसपर अटल रही और यह क़ानून लागू होकर अपना काम भी शुरू कर दिया। मगर, जब पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव हुए और केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ – संप्रग की जगह राजग सत्ता में आई, उसके बाद से ही इस भू-अधिग्रहण क़ानून में संशोधन की बात उठने लगी थी। राजग सरकार का आशय कुछ यूँ था कि यह क़ानून आवश्यकता से अधिक सख्त है, जिस कारण यह देश की  प्रगति में बाधा उत्पन्न करेगा, अतः इसमें संशोधन की जरूरत है। लेकिन सरकार की इस मंशा के विरोध में पूरा विपक्षी खेमा लामबंद हो गया, जिस कारण संसद के उच्च सदन राज्यसभा में बहुमत से दूर राजग सरकार इस विधेयक को पारित करना तो दूर पेश तक नहीं कर सकी। इसीके बाद राजग सरकार द्वारा अध्यादेश के जरिये इस विधेयक के संशोधनों को लागू कर दिया गया । अब अध्यादेश के नियमानुसार सरकार को अगले छः महीने के भीतर इसे संसद से मंजूरी दिलानी होगी। सरकार का तो कहना है कि वो अगले संसद सत्र में इसे पारित करा लेगी, लेकिन आज जिस तरह से इसका विरोध हो रहा है, उसे देखते हुए तो सरकार की ये बात बेमानी ही प्रतीत होती है। हाँ, अगर सरकार संसद का संयुक्त सत्र बुलाती है तो अवश्य संभव है कि वो इस विधेयक समेत बीमा आदि पर लाए गए सभी अध्यादेशों को पारित करवा ले। लेकिन संयुक्त सत्र बुलाने की कुछ शर्ते होती हैं, जैसे कि जब संसद के किसी एक सदन में काम-काज एकदम ठप्प हो जाय तो संयुक्त सत्र बुलाया जाता है, लेकिन फ़िलहाल ऐसी कोई विकट स्थिति नहीं दिख रही। 
दबंग दुनिया 
  बहरहाल, अब सवाल यह उठता है कि आखिर राजग सरकार भू-अधिग्रहण क़ानून-२०१३ में संशोधन को लेकर इतनी जल्दी में क्यों थी कि इसपर अगले संसद सत्र की प्रतीक्षा तक नहीं कर सकी और अध्यादेश ले आई ? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें भू-अधिग्रहण क़ानून-२०१३ के प्रावधानों व मोदी सरकार द्वारा उनमे किए गए संशोधनों पर एक नज़र डालनी होगी। गौर करें तो भू-अधिग्रहण क़ानून २०१३ में जिन बातों को सबसे अधिक ध्यान रखा गया था, वो हैं - सामाजिक प्रभाव, भू-स्वामी की सहमति  एवं मुआवजे की राशि। इनमे सबसे प्रमुख भू-स्वामी की सहमति का प्रावधान था जिसके अंतर्गत यह तय किया गया था कि किसी भी भू-भाग को अगर सरकार व निजी कंपनियों के द्वारा संयुक्त रूप से अधिग्रहित किया जाता है तो उसके भू-स्वामियों की ८० फीसदी मंजूरी आवश्यक होगी। वहीँ अगर सिर्फ अकेले सरकार के द्वारा  भूमि-अधिग्रहित की जाती है तो भू-स्वामियों की ७० फीसदी सहमति चाहिए होगी। इसके अलावा सामाजिक असर के अंतर्गत यह निर्धारित किया गया था कि किसी भी भूमि के अधिग्रहण से वहां रहने वाले लोगों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा किए बिना भूमि का अधिग्रहण नहीं किया जाय। अब मोदी सरकार द्वारा अध्यादेश लाकर भू-स्वामी की सहमति व सामाजिक प्रभाव वाले इन दोनों प्रावधानों को पूरी तरह से ख़त्म कर दिया गया है, मुआवजे की राशि का प्रावधान अब भी यथावत रखा गया है। अब इन दोनों प्रावधानों के ख़त्म हो जाने से मौजूदा भू-अधिग्रहण क़ानून काफी हद तक १८९४ के भू-अधिग्रहण क़ानून  जैसा हो गया है। दरअसल सरकार द्वारा इस क़ानून में संशोधन करने के पीछे मुख्य कारण यह है कि भारत को दुनिया के लिए ‘निर्माण का केंद्र’ बनाने के उद्देश्य से शुरू मोदी सरकार के बेहद महत्वाकांक्षी कार्यक्रम मेक इन इण्डिया की राह में यह क़ानून बड़ी बाधा बन रहा था। अब चूंकि, मेक इन इण्डिया कार्यक्रम के तहत सरकार दुनिया भर की कंपनियों को भारत में निर्माण के लिए आमंत्रित कर रही है, अब उन कंपनियों को यहां अपने कारखाने लगाने के लिए जमीन की जरूरत होगी। अब भू-अधिग्रहण क़ानून-२०१३ के होते हुए उन कंपनियों को इच्छानुसार जमीन उपलब्ध करा पाना सरकार के लिए बेहद मुश्किल होता। इसके अलावा  सरकार सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए भी प्लांट लगाना चाहती है, पर इसमें भी भू-अधिग्रहण क़ानून-२०१३ रोड़े लगा रहा था।  बस इन्ही सब कारणों से सरकार द्वारा संसद से सड़क तक विरोध के बावजूद इस क़ानून में अध्यादेश के जरिये संशोधन किया गया। अब इन बातों से यह तो एकदम स्पष्ट है कि सरकार ने औद्योगिक-आर्थिक उन्नति के अन्धोत्साह में भू-अधिग्रहण क़ानून-२०१३ में संशोधन कर देश के किसानों के साथ सबसे अधिक नाइंसाफी की है। गौर करें तो आज देश के ९० फिसद किसानों के पास औसतन महज २ हेक्टेयर खेती योग्य भूमि है। अब ऐसे में अगर उनकी इच्छा के बिना भू-अधिग्रहण किया जाने लगा, तब  तो हमारे किसानों के पास कुछ बचेगा ही नहीं। खेती की मुश्किलों के कारण वैसे भी किसानों का खेती से मोहभंग होता जा रहा है, तिसपर अगर उनकी भूमि भी उनसे छीन ली गई तब तो वे खेती से पूरी तरह से तौबा कर लेंगे। और अगर इस देश के किसानों ने खेती से तौबा कर ली तो संदेह नहीं कि देश के आर्थिक विकास के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे सारे प्रयास धरे के धरे रह जाएंगे, क्योंकि खेती आज भी इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। अतः उचित तो यही होगा कि सरकार अपने इस कदम पर एकबार फिर विचार करे, संभव है कि उसे समझ आ जाय कि उसके इस कदम से देश को लाभ कम हानि ज्यादा होने की संभावना है।

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