शनिवार, 2 जून 2018

ठहराव और विस्तार का अभाव [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

महाभारत की कथा द्वारा धर्म और सत्य को लेकर स्थापित मान्यताओं से लोक-मान्यताओं का एक हद तक विरोधाभास ही वो मुख्य बिंदु है, जो लेखकों को इस कथा पर अपनी लेखनी चलाने के लिए सहज ही आकर्षित करता है। ये मुख्य कारण है कि महाभारत की कथा की आधुनिक बोध से भरी पुनर्प्रस्तुति से लेकर उसकी घटनाओं की विविध व्याख्याओं से भरी अनेक पुस्तकें भारत सहित विश्व भर में लिखी गयी हैं। डॉ. पवन विजय का लघु उपन्यासबोलो गंगापुत्र!’ भी इसी प्रकार के रचनाक्रम की एक छोटी-सी कड़ी है। इस उपन्यास में लेखक ने शरशैय्या पर लेटे भीष्म को आश्रय बनाकर अपने मन में कुलबुला रहे महाभारतयुगीन धर्म-अधर्म के प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास किया है। लेखक का दृष्टिकोण स्पष्ट है कि वो स्थापित कथानक और मान्यताओं की लकीर का फ़कीर नहीं बनेगा, बल्कि तर्क के आलोक में उनकी न्यायोचित व्याख्या करने का प्रयास करेगा।

भीष्म से काल, कृष्ण, व्यास, विदुर और संजय के काल्पनिक संवादों के माध्यम से लेखक ने अपने विचारों को स्वर देने का प्रयास किया है। भीष्म के मन में उठने वाले प्रश्न, वास्तव में उस लोकजगत के प्रश्न हैं, जो महाभारत द्वारा स्थापित धर्म के रूप को स्वीकार नहीं पाता। भीष्म को काल के द्वारा जो उत्तर मिलते हैं, वो भी लोकजगत के बीच से ही निकले हैं। अंत में धर्म की विजय होती हैऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि अंतिम परिणाम को न्यायोचित ठहराया जा सके। वस्तुतः राजनीति मेंविजय ही धर्महै। उपन्यास का यह अंश ही इसकी पूरी विषयवस्तु का सार है।

निस्संदेह लेखक ने महाभारत के प्रति एक अलग दृष्टि प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मगर समस्या यह है कि लेखक ने जो रचा है, वो पहले से ही लोक में कमोबेश मौजूद रहा है। यूँ कहें तो गलत नहीं होगा कि लेखक ने लोक की बातों को ही लिपिबद्ध कर, पुनः लोक को ही समर्पित कर दिया है। लेखक का दृष्टिकोण और प्रस्तुति-शिल्प ठीक हैं और निस्संदेह इसके कुछ हिस्से प्रभावी भी बन पड़े हैं, परन्तु विषयवस्तु की गंभीरता के अनुरूप आवश्यक विस्तार और ठहराव के अभाव के कारण समग्रतः ये कृति बहुत प्रभाव छोड़ने में सफल सिद्ध नहीं हो पाती।

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