शुक्रवार, 1 जून 2018

प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन जरूरी [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

बीते दिनों तमिलनाडु का तूतीकोरिन शहर वहाँ अवस्थित वेदांता समूह के स्टरलाइट  कॉपर प्लांट को लेकर हुए विरोध प्रदर्शन और हिंसा के कारण काफी चर्चा में रहा। गौरतलब है कि इस प्लांट के विरोध में उतरे कथित स्थानीय लोगों के विरोध प्रदर्शन ने गत 22 मई को हिंसक रूप ले लिया, जिस कारण पुलिस को कार्रवाई करनी पड़ी। पुलिसिया कार्रवाई में 13 लोगों की जान चली गयी और बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए। ख़बरों के मुताबिक, लोगों के विरोध प्रदर्शन के कारण अब तमिलनाडु सरकार ने वेदांता समूह के इस पच्चीस साल पुराने प्लांट को हमेशा के लिए बंद करने का आदेश दे दिया है। तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री ओ। पनीरसेल्वम ने बीते सोमवार को इस सम्बन्ध में जानकारी देते हुए बताया कि लोगों की मांग को ध्यान में रखते हुए प्लांट को हमेशा के लिए बंद कर दिया गया है।

क्या है पूरा मामला ?
इस मामले की शुरूआत गत मार्च के अंतिम सप्ताह में हुई, जब कम्पनी की तरफ से ऐसी घोषणा की गयी कि वो अपना उत्पादन चार लाख टन वार्षिक से बढ़ाकर आठ लाख टन वार्षिक करेगी। इसके बाद से ही थोड़ा-बहुत विरोध प्रदर्शन होने लगा था। लोगों का कहना था कि इस औद्योगिक इकाई के कारण होने वाले प्रदूषण से इलाके में पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँच रहा है। प्लांट से निकलने वाले अपशिष्ट से इलाके का पानी खराब होने के कारण लोगों के बीमार पड़ने की बात भी लोगों द्वारा कही जा रही थी।

यहाँ उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि 29 मार्च को मेंटिनेंस के कारण इस प्लांट को पंद्रह दिनों के लिए बंद कर दिया गया था, लेकिन फिर अप्रैल महीने में प्रदूषण नियत्रण बोर्ड ने पर्यावरण सम्बन्धी नियमों का पालन न करने के कारण इसके पच्चीस वर्ष पुराने लाइसेंस का नवीनीकरण करने से इंकार कर दिया जिस कारण यह प्लांट बंद ही रहा। बोर्ड का कहना था कि कंपनी अपनी कॉपर इकाई से निकसित अपशिष्ट बिना परिशोधित किए सीधे नदी में छोड़ देती है, इस कारण इलाके का पानी प्रदूषित हो रहा है। जाहिर है, प्रदर्शनकारी लोगों के आरोप से मिलती-जुलती बात ही बोर्ड ने भी कही है। हालांकि जब कंपनी ने बोर्ड के फैसले को चुनौती दी तो बोर्ड ने सुनवाई के लिए 6 जून की तारीख निश्चित कर दी, लेकिन अब जब तमिलनाडु सरकार द्वारा इस प्लांट को हमेशा के लिए बंद करने का फैसला ले लिया गया है, तो उस तारीख की सुनवाई का कोई मतलब नहीं रह जाता। हालांकि कंपनी की तरफ से सभी प्रकार के आरोपों को खारिज करते हुए अफवाहों से बचने की बात कही गयी है। वैसे इस कंपनी का अतीत भी दागदार ही रहा है। स्थापना के समय से ही इसपर सम्बंधित कानूनों की अवहेलना का आरोप लगता रहा है तथा स्थानीय स्तर पर इसे विरोध का सामना भी करना पड़ता रहा है।   
दैनिक जागरण

उठते हैं सवाल
बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम के तथ्यों का अवलोकन करने पर कुछ सवाल उभरकर आते हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि जब अप्रैल महीने में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) ने इस प्लांट का लाइसेंस रोक दिया था और प्लांट बंद पड़ा था तथा सुनवाई के लिए 6 जून की तारीख निश्चित थी, तो फिर ये विरोध प्रदर्शन किसलिए हो रहा था ? ऊपर से ऐसा क्या हो गया था कि 22 मई को प्रदर्शनकारी लोगों को हिंसा का सहारा लेना पड़ा ? अगर 6 जून को पीसीबी कंपनी के पक्ष में फैसला सुना देता और तब लोग विरोध प्रदर्शन करते, तो बात समझ में आती, मगर उससे पहले ही एक बंद पड़े प्लांट के लिए इतना उपद्रव क्यों किया गया ? सवाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पर भी उठता है कि पच्चीस वर्षों से अगर यह प्लांट नियमों की अनदेखी करके चल रहा था और स्थानीय स्तर पर विरोध भी हो रहा था, तो बोर्ड ने स्वतः संज्ञान लेते हुए पहले ही उसके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की ?

जांच जरूरी
उपर्युक्त सवालों से जाहिर है कि यह मामला संदिग्धताओं से भरा है। प्रदर्शनकारियों पर कुछ लोगों द्वारा लगाए जा रहे इस प्रकार के आरोप कि यह विरोध प्रायोजित और इलाके के विकास को अवरुद्ध करने की मंशा से किया गया था, भी एक अलग तरह का ही सवाल खड़ा कर रहे हैं।

एक आंकड़े के मुताबिक़ देश के कॉपर का पैंतीस प्रतिशत हिस्सा इसी प्लांट से उत्पादित होता है। पिछले दिनों इसके बंद होने की खबर उठते ही बाजार में कॉपर की कीमतों में भारी उछाल भी देखने को मिली थी। साथ ही कंपनी का ही दावा है कि बत्तीस हजार से अधिक लोगों का रोजगार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उससे जुड़ा हुआ है, ऐसे में इसपर ताला लगने से उनके सामने रोजी-रोटी का संकट उपस्थित होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। अतः आवश्यक है कि कंपनी पर किसी जल्दबाजी में ताला लगाने का फरमान सुनाने की बजाय सम्बंधित मामले के सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए न्यायपालिका की निगरानी में इसकी निष्पक्ष जांच करवाई जाए ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके। फिर जो तथ्य सामने आएं उनके आधार पर कार्रवाई की जाए। क्योंकि इतने वर्षों पुरानी औद्योगिक इकाई को कुछ लोगों के विरोध के कारण यूँ एकदम से बंद कर देना उचित नहीं है।

देश-दुनिया की समस्या

तूतीकोरिन प्रकरण की सत्यता क्या है, कौन सही बोल रहा और कौन झूठ, इत्यादि बातों का पता तो जब चलेगा तब चलेगा, लेकिन हमें इतना समझ लेना चाहिए कि तूतीकोरिन में औद्योगिक इकाई के कारण जिस प्राकृतिक विनाश की बात उठ रही है, वो सिर्फ उस एक शहर की नहीं बल्कि पूरे देश और दुनिया की समस्या है। आज यह निर्विवाद तथ्य है कि औद्योगिक प्रगति के अन्धोत्साह में हम प्रकृति का निर्ममतापूर्वक विनाश करते जा  रहे हैं। भारत की बात करें तो अनेकानेक रिपोर्टों में यह बात साफ़ हो चुकी है कि देश में प्रदूषण एक बड़ी समस्या का रूप ले चुका है। इस प्रदूषण से कितनी क्षति हो रही, इसका अंदाजा प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘द लांसेट’ में प्रकाशित इस अध्ययन से लगाया जा सकता है, जिसके अनुसार 2015 में दुनिया भर में प्रदूषण से हुई मौतों के मामले में भारत 188 देशों में पांचवे स्थान पर रहा। 2015 में दुनिया में हुई कुल मौतों का 28 प्रतिशत हिस्सा अकेले भारत में है। इनमे अधिकतर मौतें हवा-पानी के प्रदूषण से ही हुई हैं और कहने की आवश्यकता नहीं कि हवा-पानी के प्रदूषण का मुख्य कारक हमारी ये औद्योगिक प्रगति ही है।

देखा जाए तो एक औद्योगिक इकाई की स्थापना की बुनियाद पड़ते ही सम्बंधित भूभाग  की प्रकृति का विनाश-क्रम आरम्भ हो जाता है। कहने भर को औद्योगिक घरानों के लिए उद्योग लगाने से पूर्व स्थानीयता के संरक्षण का ध्यान रखने के नियम हैं, लेकिन इन नियमों का ठीक प्रकार से अनुपालन शायद ही किसी औद्योगिक इकाई में होता हो। क्योंकि, जुगाड़ या पैसे के बल से प्रायः औद्योगिक समूहों के कर्णधार नियमों को अपने पक्ष में मोड़ लेते हैं। अधिग्रहित भूमि के पेड़-पौधे साफ़ हो जाते हैं और जल आदि का कोई स्थान हो तो उसे मिट्टी से पाट दिया जाता है। इसके बाद जब औद्योगिक इकाई स्थापित होकर अपना काम शुरू करती है, तो उसकी चिमनियों से निकलता विषैला धुआँ तथा अपशिष्ट, हवा-पानी को बर्बाद कर देते हैं। ये औद्योगिक प्रगति का तांडव ही तो है कि एक तरफ देश की हवा का स्तर दिन-प्रतिदिन बिगड़ता जा रहा है, तो दूसरी तरफ देश की सदानीरा नदियों की दुर्दशा हो रही है।

नदियों की दुर्दशा
असाधारण धार्मिक महत्त्व के साथ भारत में सबसे बड़ी नदी गंगा है। ढाई हजार किलोमीटर से अधिक लम्बी यह नदी देश के लगभग दर्जन भर राज्यों की आबादी के 40 प्रतिशत लोगों को पानी उपलब्ध कराती है। लेकिन, लोगों के पाप धोने वाली गंगा का पानी आज काला हो चुका है तथा परीक्षणों में यह बात भी सामने आ चुकी है कि वो पानी पीना तो दूर नहाने लायक भी नहीं रह गया है। कमोबेश यही हाल यमुना का भी है। मध्य भारत की जीवनरेखा कही जाने वाली नर्मदा नदी तो विलुप्ति की कगार पहुँच चुकी थी, तब सरकार को होश आया और नर्मदा संरक्षण के लिए प्रयास शुरू हुए तो स्थिति में थोड़ा-बहुत सुधार हुआ। इनके अलावा देश की अन्य छोटी-बड़ी तमाम नदियों की हालत भी औद्योगिक उत्सर्जन के कारण बद से बदतर होती जा रही है। नदियों की इस दुर्दशा का मुख्य कारण औद्योगिक कारखानों के कचरे का उनमें गिराया जाना है, मगर विडंबना ये है कि सरकार से लेकर न्यायालय तक इस सम्बन्ध में कभी सख्त रुख नहीं दिखाते। सरकार नदियों को स्वच्छ करने की बात करती है, लेकिन ये कभी नहीं कहती कि जबतक नदियों में औद्योगिक अपशिष्ट गिरता रहेगा, उनको स्वच्छ बनाने का कोई अभियान सफल नहीं हो सकता।

संतुलन है समाधान
प्रकृति के संरक्षण के नाम पर औद्योगिक इकाइयों को बंद कर देना, जैसा कि उक्त स्टरलाइट मामले में हुआ है, उचित नहीं कहा जा सकता। औद्योगिक प्रगति समय की आवश्यकता है और अब इसे छोड़ने का विकल्प हमारे पास नहीं है। अतः समय की आवश्यकता ये है कि औद्योगिक प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में गंभीर होकर कदम उठाए जाएं। ऐसा संतुलन जिसमें औद्योगिक विकास की बुनियाद प्राकृतिक विनाश पर न खड़ी हो। प्रकृति को शून्य क्षति पहुंचाने वाली औद्योगिक मशीनों के विकास की दिशा में शोध हो; औद्योगिक इकाइयों की स्थापना की यह शर्त तय की जाए कि उनके द्वारा अधिग्रहित भू-भाग में औद्योगिक कारखाने के अलावा एक निश्चित मात्रा में पेड़-पौधे भी लगाए जाएंगे; प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में ऐसे और भी बहुत से तरीके हो सकते हैं। कुछ नहीं तो जो वर्तमान नियम हैं, उनका ही अगर पूरी तरह से अनुपालन सुनिश्चित करवा दिया जाए, तो भी हम न्यूनतम प्राकृतिक विनाश के साथ औद्योगिक विकास की दिशा में बढ़ सकते हैं। बशर्ते कि सरकारें नदी-हवा के प्रदूषण के पराली जलाने, पटाखे फोड़ने जैसे छोटे-मोटे कारणों को गिनवाने की बजाय इसके मुख्य कारण यानी औद्योगिक प्रगति को स्वीकार करते हुए प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित करने की दिशा में ईमानदार सक्रियता दिखाएं।

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