बुधवार, 12 दिसंबर 2018

आम चुनावों पर नहीं होगा असर [हरिभूमि में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

आखिरकार महीनों की राजनीतिक खींचतान के बाद पांच राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम और तेलंगाना के चुनाव परिणाम चुके हैं। इनमें से भाजपा शासित तीनों राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान उसके उसके हाथ से निकल गए हैं। तीनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनना तय है।  राजस्थान ने दशकों से चली रही पांच वर्षों में सत्ता परिवर्तन की अपनी परम्परा को निभाते हुए इसबार भाजपा को बाहर कर कांग्रेस को नंबर एक पार्टी बनाया है। दो सौ सीटों वाले इस राज्य में कांग्रेस को 99 यानी बहुमत से कम, भाजपा को 73 और अन्य को 28 सीटें मिली हैं।  हालांकि भाजपा यहाँ सत्ता से बाहर अवश्य हुई है, लेकिन वसुंधरा के खिलाफ जिस जनाक्रोश का अनुमान लगाया जा रहा था, उस हिसाब से उनका प्रदर्शन ठीकठाक ही कहा जाएगा। 230 सीटों वाले मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस को 114 यानी पूर्ण बहुमत से कम पर ही संतोष करना पड़ा है। भाजपा के खाते में भी 109 सीटें आई हैं तथा 8 सीटें अन्य को मिली हैं।  जाहिर है, यहाँ पंद्रह सालों से सत्तारूढ़ भाजपा के प्रति जिस सत्ता विरोधी रुझान की उम्मीद की जा रही थी, वो नदारद है। हालांकि पूर्ण बहुमत से एक-एक सीटें कम होने की स्थिति में भी उक्त दोनों ही राज्यों में बसपा आदि के संभावित समर्थन से कांग्रेस की सरकार बनना तय है।

सबसे अधिक चौंकाने वाले नतीजे छत्तीसगढ़ के रहे हैं। इन तीनों राज्यों में छत्तीसगढ़ को लेकर भाजपा और उसके समर्थक सर्वाधिक आश्वस्त थे। रमन सिंह के ईमानदार और जनप्रिय नेतृत्व के मुकाबले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का कोई मजबूत चेहरा होना इस आश्वस्ति की बड़ी वजह था। लेकिन परिणामों ने साफ़ कर दिया है कि यहाँ भाजपा जनता की नब्ज़ को टटोलने में नाकाम रही और जीत के अति-आत्मविश्वास में इस राज्य को हल्के में ले बैठी। राज्य की नब्बे सीटों में से भाजपा के हाथ महज 15 सीटें आई हैं, वहीं कांग्रेस 68 सीटों के रूप में विशाल बहुमत के साथ विजयी रही है। शुरूआती रुझानों में तो ऐसी नौबत गयी थी कि मुख्यमंत्री रमन सिंह ही कांग्रेस उम्मीदवार करुणा शुक्ला से पीछे चलने लगे थे, लेकिन बाद में उन्होंने अपनी स्थिति सुधार ली और अंततः लगभग 17 हजार वोटों से विजयी रहे। कहा जा सकता है कि जिस जनाक्रोश की उम्मीद लोग राजस्थान में जता रहे थे, वो छत्तीसगढ़ में दिखा है। हालांकि इन चुनावों में कांग्रेस को मिजोरम का नुकसान भी हुआ है, जबकि भाजपा ने यहाँ अपना खाता खोलने में कामयाबी हासिल की है।  

2014 के बाद से अधिकांश चुनावों में पराजय का सामना करने के कारण राष्ट्रीय पार्टी की अपनी पहचान को बचाने के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस के लिए ये चुनाव परिणाम निश्चित ही संजीवनी सिद्ध होंगे। इसके बाद महागठबंधन में उसका महत्व बढ़ने की संभावना है।

भाजपा की बात करें तो उसके लिए ये आत्मचिंतन का समय है। छत्तीसगढ़ को लेकर पार्टी को विशेष रूप से चिंतन करना होगा कि आखिर क्या कारण रहा कि यहाँ उसे इतनी बुरी तरह से पराजित होना पड़ा। राजस्थान में वसुंधरा राजे का प्रदर्शन उम्मीदों से विपरीत बेहतर रहने के बाद भाजपा को इस बिंदु पर विचार करना होगा कि इस राज्य में स्थिति कमजोर होने की हवा कैसे बन गयी और छत्तीसगढ़ जहां वास्तव में कमजोरी थी, उसका अंदाजा कैसे नहीं मिला। इसी तरह मध्य प्रदेश में भी हार के कारणों की तह तक पार्टी को पहुँचना होगा। ये सब करना इसलिए भी बहुत आवश्यक है, क्योंकि कुछ ही महीनों में लोकसभा चुनावों की चुनौती भी उपस्थित होगी। ऐसे में भाजपा के लिए उचित होगा कि इन राज्यों में पराजय के कारणों की पड़ताल कर उन्हें दूर करने की दिशा में कदम उठाए।

हालांकि जिस तरह से इन विधानसभा चुनावों को आगामी लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल बताया जा रहा है, उसे ठीक नहीं कह सकते। क्योंकि इनका असर लोकसभा चुनाव में कार्यकर्ताओं के आत्मविश्वास से अधिक किसी और रूप में दिखने की बहुत अधिक संभावना नहीं है। ये चुनाव राज्य के थे और इनमें मतदाताओं ने स्थानीय नेतृत्व मुद्दों के आधार पर मतदान किया है, जबकि लोकसभा चुनाव में नेतृत्व और मुद्दे दोनों ही अलग होंगे। दूसरी चीज कि राजस्थान को अपवाद मान लें तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा का शासन लम्बे समय से था, अतः सत्ता विरोधी रुझान के साथ-साथ मतदाताओं में परिवर्तन की आकांक्षा भी रही होगी। इसके उलट केंद्र में दस साल लगातार कांग्रेस को देखने के बाद भाजपा की पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है, ऐसे में इस सरकार को लेकर लोगों में अभी ऊब जैसी कोई भावना विकसित हुई हो, इसकी संभावना नहीं है। ऐसे में लोकसभा चुनावों पर इन चुनाव परिणामों का कोई भाजपा के लिए कोई प्रतिकूल या कांग्रेस के लिए अनुकूल प्रभाव होगा, ऐसा नहीं कह सकते।

हालांकि तीनों राज्यों की सरकारें जाने से लोकसभा चुनाव में भाजपा को एक सहूलियत जरूरी हो सकती है। वो ये कि इन राज्यों में अब कांग्रेस की सरकारें होंगी, ऐसे में लोकसभा में भाजपा को राज्य के सत्ता विरोधी रुझान का सामना नहीं करना पड़ेगा। वहीं कांग्रेस ने जिस तरह के बड़े-बड़े वादे किए हैं, उन्हें पूरा करने में यदि उसकी सरकारें तबतक आगे बढ़ती नहीं दिखीं तो इसका खामियाजा उसे लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। अतः कांग्रेस जीती जरूर है, लेकिन उसकी चुनौतियां खत्म नहीं हुईं हैं। उसके लिए आगे की राह और भी कठिन रहने वाली है।

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