रविवार, 23 सितंबर 2018

रामकथा की अप्रभावी पुनर्प्रस्तुति [दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

प्रसिद्ध पुराणविद देवदत्त पटनायक की पुस्तक सीता के पांच निर्णय : रामायण की एक अनूठी प्रस्तुति’, जो उनकी अंग्रेजी पुस्तक गर्ल हु चूज का हिंदी अनुवाद है, में सीता को केंद्र में रखकर रामायण की कथा प्रस्तुत की गयी है। जैसा कि इसके नाम से ही जाहिर है, ये सीता के पांच निर्णयों की कथा है। इन पांच निर्णयों में रामायण की पूरी कथा को विभाजित करके इसे एक रोचक रूप देने का प्रयास किया गया है।

धनुष-भंग से शुरू करते हुए राम के परलोकगमन तक के प्रसंग का संक्षिप्त वर्णन इस पुस्तक में मौजूद है, जिसके बीच सीता के पांच निर्णय आते हैं। इन पांच निर्णयों को आधार बनाकर सीता के चरित्र की दृढ़ता और निर्णयप्रियता जैसे पक्षों पर बल दिया गया है। सीता के जिन पांच निर्णयों को इस पुस्तक की विषयवस्तु का आधार बनाया गया है,  रामकथा की थोड़ी सी भी समझ रखने वाला पाठक सहज ही उन निर्णयों का अनुमान लगा सकता है।

यह तो सर्वस्वीकृत तथ्य है कि सीता, रामायण की एक महत्वपूर्ण चरित्र हैं। सीता पर ही इस कथा का आधार टिका है। सीता के बिना मर्यादापुरुषोत्तम राम और रामायण के अस्तित्व की कल्पना भी संभव नहीं है। यही कारण है कि आज जनमानस में जितनी श्रद्धा और आदर राम के प्रति है, उतना ही सीता के प्रति भी है। बल्कि भजन-कीर्तन में तो राम से पूर्व सीता का नाम लेते हुए सीता राम ही गाया जाता है।

कहने का मतलब यह है कि उक्त पुस्तक में सीता के चरित्र के महत्व को जिन पांच निर्णयों के आधार पर व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया गया है, सीता का चरित्र उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण रूप में पूर्ववत स्वीकृत है। अतः सीता के चरित्र में कुछ नया जोड़ने की दृष्टि से यह पुस्तक बहुत प्रभावी नहीं कही जा सकती है।  

देखा जाए तो अभ्युदय, अपने अपने राम आदि रामकथा पर आधारित कई उल्लेखनीय पुस्तकें हिंदी में लिखी गयी हैं, जिनमें रामायण की मूल कथा को लेकर कुछ अलग व्याख्या और दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। परन्तु, इस मामले में भी इस पुस्तक में कोई नयापन नहीं दिखाई देता। विभिन्न रामायणों से प्रसंगों को लेकर सीधे-सादे ढंग से साधारण भाषा में पूर्वप्रचलित रामकथा की संक्षिप्त प्रस्तुति के अलावा यह पुस्तक और कुछ नहीं प्रतीत होती। इसके अंग्रेजी संस्करण के प्रकाशन के समय देवदत्त पटनायक का कथन था कि यह पुस्तक बच्चों को दृष्टि में रखकर लिखी गयी है। संभव है कि ये पुस्तक बच्चों के लिए कुछ उपयोगी सिद्ध हो, परन्तु ऐसे में इसका स्वरूप थोड़ा और सरल तथा संक्षिप्त होना चाहिए था ताकि बच्चे इसे सहजतापूर्वक समझ सकें।

भाषा की बात करें तो संभवतः अनुवाद की चुनौतियों के कारण कई जगह संवादों में सहज बहाव की कमी और शुष्कता महसूस होती है। ऐसे में, सरल और सरस भाषा-शैली में रामकथा को पढ़ चुके बच्चों को इस पुस्तक के संवादों से गुजरते हुए थोड़ी मुश्किल और ऊब हो सकती है।                   
सवाल इसमें मौजूद कई तथ्यों पर भी उठता है। इसमें प्रस्तुत बहुत से तथ्य भ्रामक और त्रुटिपूर्ण हैं। पुस्तक के प्रारंभ में देवदत्त पटनायक किसी कविता का उल्लेख करते हैं, जिसमें वरुण के हजार और इंद्र के सौ नेत्र होने की बात आती है। यहाँ इंद्र के सौ नेत्र सम्बन्धी तथ्य ठीक नहीं है। वास्तव में इंद्र के सौ नहीं, हजार नेत्र होने की बात का जिक्र हमारे पुराणों महाभारत आदि (अनुशासन पर्व, अध्याय 34, श्लोक 27-28) में मिलता है। दरअसल जब इंद्र ने अहिल्या के साथ छल किया था, तभी उन्हें ऐसा शाप प्राप्त हुआ और उनके शरीर पर हजार नेत्रों के चिन्ह बन गए। इसी कारण ही इंद्र का एक नाम सहस्त्राक्ष भी है। इंद्र के सहस्त्र नेत्रों की यह कथा अत्यंत प्रचलित है, ऐसे में देवदत्त पटनायक जैसे पुराणविद लेखक उनके सौ नेत्र किस आधार पर लिख  रहे हैं, ये समझ से परे है।  
आगे लिखा गया है कि शिव ने अपना धनुष जनक को दे दिया और उन्हें बताया कि लक्ष्मी की अवतार उनकी पुत्री इसे उठा लेगी जिसका विवाह विष्णु के अवतार राम से होगा। शिव के द्वारा जनक को ऐसी जानकारी देने का प्रसंग तो वाल्मीकि के आदिकाव्य में ही मिलता है और ही तुलसी के रामचरितमानस में ही। प्रसंग यह प्राप्त होता है कि जनक को शिव का धनुष वंश-परम्परा से प्राप्त हुआ था। ऐसे में शिव द्वारा जनक को धनुष दिए जाने का प्रसंग किस आधार पर लिखा गया है, यह पुस्तक में स्पष्ट किया जाना चाहिए था। परन्तु, ऐसी कोई जानकारी हमें वहाँ नहीं मिलती जिस कारण इस तथ्य को लेकर अत्यंत भ्रमपूर्ण स्थिति पैदा हो जाती है। पुस्तक चाहें बच्चों के लिए हो या बड़ों के लिए, इसमें प्रस्तुत तथ्य तो दुरुस्त होने ही चाहिए। कुल मिलाकर रामकथा की अनूठी प्रस्तुति का दावा करने वाली ये पुस्तक अंततः उसकी एक अप्रभावी प्रस्तुति भर बनकर रह जाती है।

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