सोमवार, 10 सितंबर 2018

पुरुषों हितों की उपेक्षा क्यों [दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित]

  • पीयूष द्विवेदी भारत

स्त्री-हितों के लिए चिंतातुर आवाजों के इस दौर में भाजपा के दो सांसदों अंशुल वर्मा और हरिनारायण राजभर द्वारा पुरुष-हितों की सुरक्षा के लिएराष्ट्रीय पुरुष आयोग के गठन की मांग की उठाई गयी है। वे संसद में भी इस विषय को उठा चुके हैं और अब उनका कहना है कि वे पुरुष आयोगके गठन हेतु लोगों का समर्थन जुटाने के लिए 23 सितंबर को नई दिल्ली में एक कार्यक्रम को संबोधित भी करेंगे। ऊपर-ऊपर से यह मांग थोड़ी अटपटी जरूर लग सकती है, लेकिन तथ्यों के आधार पर वस्तुस्थिति का अवलोकन करने पर इसका औचित्य स्पष्ट हो जाता है।    
भारत में स्त्रियों की दुर्दशा पर चर्चा लम्बे समय से होती रही है, लेकिन इस रूप में कभी पुरुषों की स्थिति पर चर्चा नहीं सुनाई देती। परिस्थितिवश यह एक भयंकर पूर्वाग्रह इस देश में व्याप्त हो गया है कि स्त्री-पुरुष के किसी भी संघर्ष  में पीड़ित सिर्फ स्त्री होती है, पुरुष नहीं। पुरुष को हमेशा पीड़क की भूमिका में ही देखा जाता है। त्रासद यह है कि हमारे विधि-निर्माताओं ने स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस पूर्वाग्रह के आधार पर ही अनेक क़ानून भी बना डाले हैं। दहेज़ निरोधक क़ानून, घरेलू हिंसा अधिनियम, बलात्कार से सम्बंधित क़ानून सहित स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए और भी कई छोटे-बड़े कानूनी प्रावधान अमल में लाए गए हैं।
इन सब कानूनों की विशेषता यह है कि ये अत्यंत पक्षपातपूर्ण हैं और इनमें केवल पूर्वाग्रह के आधार पर अपराध होने से पूर्व ही पुरुष को अपराधी मानते हुए उसके प्रति हर प्रकार से कठोरता दिखाई गयी है। अपने इस पक्षपातपूर्ण स्वरूप के कारण ये क़ानून स्त्री-हितों की रक्षा में जितने सफल नहीं हुए, उससे अधिक पुरुषों को धमकाने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाने लगा। आए दिन देश में ऐसे कानूनों के दुरूपयोग के मामले सामने आते रहते हैं।
उल्लेखनीय होगा कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक साल 2012 में दहेज़ निरोधक क़ानून  के तहत दर्ज मामलों में 1 लाख 97 हजार 762 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया। इनमें लगभग 25 फीसदी महिलाएं थीं। इन महिलाओं में शिकायत करने वाली महिला की सास और ननद भी शामिल थीं। धारा 498 के तहत दर्ज इन मामलों में चार्जशीट यानी आरोप पत्र दाखिल करने की दर 936 फीसदी है जबकि आरोपियों पर दोष साबित होने की दर सिर्फ 15 फीसदी है। घरेलू हिंसा क़ानून के साथ भी यही स्थिति है।

बलात्कार से सम्बंधित धारा-376 में तो  पक्षपात की सभी सीमाएं लांघ दी गयी हैं। इस क़ानून के तहत स्त्री का आरोप लगाना भर आरोपी की गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त होता है। इस क़ानून में आरोप सिद्ध करने की जिम्मेदारी से भी शिकायतकर्ता महिला को मुक्त रखा गया है बल्कि ये जिम्मेदारी आरोपी की होती है कि वो स्वयं को निर्दोष सिद्ध करे। 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ सहमतिपूर्वक शारीरिक संबंध बनाने को भी विचित्र ढंग से बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है। साथ ही, नशे में अगर महिला सहमति दे देती है, लेकिन बाद में आरोप लगाती है, तो उस अवस्था में भी पुरुष को दोषी माने जाने का प्रावधान इस क़ानून में शामिल है। ऐसे पक्षपातपूर्ण प्रावधानों के बाद इस क़ानून का दुरूपयोग होना स्वाभाविक ही है। महिलाएं इस क़ानून को पुरुषों से पैसे ऐंठने, अपनी बात मनवाने तथा किसी बात का बदला लेने आदि के लिए  इस्तेमाल करती हैं।
अभी हाल ही में महिला आयोग द्वारा जारी किए गए एक आंकड़े के मुताबिक, गत पांच वर्षों के दौरान 27771 मामलों में से महज 3271 मामलों में पुलिस आरोपपत्र दायर कर सकी। इसके लिए पुलिस की कमजोर जांच को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, मगर ज्यादातर मामलों में आरोपपत्र दाखिल होने का कारण पीड़िता का ट्रायल के दौरान अपने आरोपों से मुकर जाना या जांच में ही आरोप का फर्जी पाया जाना होता है। पिछले महीने ही सर्वोच्च न्यायालय ने 2001 के एक बलात्कार केस में दो आरोपियों को बरी कर दिया। लेकिन इससे पूर्व वे दोनों आरोपी 10 और 7 साल की जेल काट चुके थे। न्यायालय भी अक्सर पुरुषों के खिलाफ इस क़ानून के दुरूपयोग पर टिप्पणी करते रहे हैं, लेकिन पुरुषों को इस संकट से उबारने के लिए किसीकी तरफ से कोई पहल नहीं होती बल्कि दिन प्रतिदिन इस क़ानून का दुरूपयोग बढ़ता ही जा रहा है।
अभी हाल ही में सामने आई एक घटना के मुताबिक, एक बारहवीं की छात्रा ने दोस्त के साथ खूब शराब पी और फिर परिवार की डांट से बचने के लिए बलात्कार की झूठी कहानी गढ़ दी। यह घटना दिखाती है कि धारा-376 लड़कियों के लिए अब दुरूपयोग से भी बढ़कर खिलवाड़ की वस्तु बनता जा रहा है। कारण यह कि आरोप झूठा साबित होने पर भी शिकायकर्ता लड़की पर किसी तरह की कार्यवाही नहीं होती।
इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं रही है और पुरुषों की तरफ से उनपर अनेक प्रकार के अत्याचार होते रहते हैं, इसलिए उन्हें कानूनी सुरक्षा मिलनी चाहिए। लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पुरुष भी इसी समाज का अंग हैं और सब पुरुष अपराधी नहीं है।
एक बड़ा सवाल यह है कि स्त्री-सुरक्षा ही इस देश में हमेशा मुद्दा क्यों बनता है? क्या पुरुषों के प्रति अपराध नहीं होते या वे विशेष शक्तियों से लैस कोई परग्रहवासी हैं जो उन्हें सुरक्षा की जरूरत नहीं? देखा जाए तो पुरुषों के साथ स्त्रियों से अधिक आपराधिक वारदातें होती हैं, घरेलू हिंसा तक का उन्हें सामना करना पड़ता है, लेकिन उनकी सुरक्षा की बात कभी नहीं उठती। चुनावी वादों से लेकर चर्चाओं तक मुद्दा स्त्री-सुरक्षा ही होता है। यह विडंबना ही है कि हमारा संविधान समान अधिकारों की बात करता है, लेकिन उसी संविधान के तहत बने स्त्री-सुरक्षा के कानूनों में पुरुषों के अधिकारों का हनन कर दिया जाता है और इसपर हर तरफ खामोशी पसरी रहती है।
यह ठीक है कि सामाजिक विधानों ने पुरुषों को निरंकुश अधिकार देकर स्त्रियों के प्रति अत्याचारी बनाया है, लेकिन इसका उत्तर यह तो नहीं कि कानूनी विधानों के द्वारा स्त्रियों को भी निरंकुश शक्ति प्रदान करके पुरुषों के प्रति अत्याचारी बना दिया जाए? सामाजिक विधानों ने पितृसत्ता की स्थापना की जिसके दुष्परिणाम हम देख रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके कानूनी विधानों के जरिये मातृसत्ता की नींव रखने में जुटे हुए हैं। अगर पितृसत्ता बुरी है, तो मातृसत्ता कैसे अच्छी होगी? हमें सत्तात्मक नहीं, समतामूलक समाज की स्थापना करने की दिशा में कदम उठाने होंगे। जरूरी है कि स्त्रियों के साथ-साथ पुरुषों के मुद्दे भी संज्ञान में लिए जाएं और उनके हितों को सुरक्षित करने के लिए भी कदम उठाए जाएं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें